मेरी एक सहेली है। मैं उससे तंग आ गई हूँ। मैं चाहती हूँ कि मुझे कोई रामबाण
उपाय बताए जिससे मैं उससे हमेशा के लिए निजात पाऊँ। मैं आपको एक के बाद एक वे
साड़ी बातें बताऊँगी, जिससे आपको मेरे तंग होनेवाली बात पर यकीन हो जाएगा।
आज से लगभग नौ वर्ष पहले वह मेरी सहेली बनी थी। उन दिनों मेरा बहुत सारा समय
उसके सहारे कटता था, ऐसा मुझे लगता रहा। पर सच तो यह है कि जैसा एक बच्चा माँ
का बहुत सारा समय खा जाता है उसी तरह वह मेरा सारा समय खा जाती थी। वह उम्र ही
वैसी थी भावुकता वाली। तभी तो मुझे लगता था कि मैं उसे चाहती हूँ। वह भी यह
दावा करती थी कि मुझे चाहती है। हम दोनों एक दूसरे को प्यार का इजहार करनेवाले
ग्रीटिंग कार्ड, जो हमारे स्कूल के बगल में आर्चीज में मिलते थे, दिया करते
थे। नए कार्ड में पुराने कार्ड से कोटेशन चोरी कर लिखा करते थे। मैं उसे वह हर
सवाल और प्रश्न का उत्तर समझाने के लिए बेताब रहती जो उसे समझ में नहीं आता
था। इससे उसका यह विश्वास पहले से ज्यादा पक्का हो जाता था कि मैं उसे बहुत
चाहती हूँ। मैं यह सोच कर खुश हुआ करती थी कि मैं अपनी सहेली को दूसरी लड़कियों
के सामने इस नजर से नहीं देखती कि एक मामूली-सा सवाल उससे हल नहीं हो रहा
बल्कि एक समझदार लड़की की तरह मदद करती हूँ। मुझे यह एकदम भी मालूम नहीं था कि
इस तरह मैंने खुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारी थी।
यह मुहावरा बिल्कुल ठीक है मेरे उस समय के कार्यकलाप को बताने के लिए। इस बात
का प्रमाण अभी तुरंत आपको दे दूँगी।
तो हुआ वही जो होना था, जिसके बीज मैंने डाल दिए थे। मेरी सहेली धीरे-धीरे
मेरी तरफ खिंचती चली आई। खिंचते जाना क्या अक्सर फिल्म में नायक-नायिका का एक
दूसरे के प्रति होता है? अगर यह अंदाजे बयाँ मैंने फिल्म से लिया है तो इसमें
बुराई क्या है। पिटी-पिटाई बात हुई थी और उसे मैं पिटी-पिटाई शब्दावली मैं कह
रही हूँ। खिंचते-खिंचते वह 'मुझमय' हो गई। क्या आप मुझमय शब्द पर अटक गए हैं?
इतनी जरा सी बात नहीं समझ रहे? दिमाग पर थोड़ा जोर डालिए आप सभी को अपने स्कूल
और कॉलेज के दिन याद आ जाएँगे। जब भक्तिकाल में सूरदास के पद्य पढ़ाते हुए
बार-बार यह रटाया जाता था कि गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में कृष्णमय हो गई थीं।
वे जो दुर्भाग्य से स्कूल-कॉलेज नहीं जा सके हैं और इसके लिए कभी अपने
माता-पिता तो कभी हिंदुस्तान की सरकार को गाली देते हैं उन्हें कम से कम यहाँ
तो नाराज होने के बजाय खुश हो लेना चाहिए। हिंदुस्तान में प्रायः हर घर में
भक्ति-रस की धारा प्रवाहित होती रहती है, कृष्ण और गोपियों का प्रेम कौन नहीं
जानता। तो मेरी सहेली 'मुझमय' हो मेरा मनन करने लगी। चिंतन में भी मैं मौजूद
थी और कीर्तन भी मेरा करती। सबके सामने मेरा पुराण छेड़ देती। धीरे-धीरे उसकी
मुहब्बत ने विकराल रूप धारण कर लिया। वह मुझे अपनी हर बात बताना चाहती, बदले
में मेरी हर बात जान लेना चाहती। मैं क्या खाती हूँ, क्या बोलती हूँ, क्या
सोचती हूँ, कब सोती हूँ, किस करवट सोती हूँ और नींद में मेरी नाइटी कहाँ तक उठ
जाती है। बाप रे बाप! वह यह सब भी जानना चाहती। मैं उसकी इस प्रवृत्ति को अपने
अन्य सहेलियों को "वह बहुत पॅाजेसिव है" कहकर व्यक्त किया करती। यह भी कहा
करती थी कि मैं उसकी डायरी बन गई हूँ और वह यह चाहती है कि मैं भी उसे अपनी
डायरी बना लूँ। उसे अपनी सारी बातें बताने लगूँ। यह भी बताऊँ कि उस समय मेरा
मन सुधीर से प्रेम टूटने के कारण डूबा-डूबा रहता था। यह सब तो उसे अपने आप समझ
लेना चाहिए था कि मेरे भारी मन का राज सुधीर का किसी और के प्रेम में फँसना
था। पर वह तो इस बात से खुश थी क्योंकि पहले वह मेरी अन्य सहेलियों से कहती
फिरती कि मैं बँट गई हूँ। उसके इस स्वार्थी स्वभाव पर मुझे बहुत गुस्सा आया
था, पर मैंने उस समय यह सोचा कि जैसे सुधीर के आ जाने से वह दुखी हुई होगी। पर
मैं मूर्ख थी। विनय के पद और नीति के दोहे पढ़-पढ़कर विनम्रता और नैतिकता का ऐसा
भूत सवार रहता कि अपनी सहेली को हमेशा माफ कर दिया करती थी। अब मुझे यह समझ
में आ गया है कि वह मुझसे जलती थी। मैं सोचा करती थी कि वह मुझे प्यार करती
है। प्यार-व्यार कुछ नहीं था। सच तो यह था कि वह मुझ पर शासन करती थी। हर समय
टोकती ऐसे मत बोलो, वैसे मत चलो, इस तरह मत खाओ। वह चाहती थी कि वह जैसे-जैसे
करे मैं भी वैसे-वैसे करूँ। तभी तो लगातार मेरे परीक्षा में अच्छे नंबर से पास
होते जाने और उसके नंबर कम होते जाने, फेल हो जाने, फिर पढ़ाई छूट जाने पर मुझे
भी पढ़ाई छोड़ कोई और कोर्स करने के लिए कहने लगी थी।
यहाँ मेरी दूसरी सहेलियाँ मुझे डाँटेंगी और कहेंगी यह तो तुम सरासर झूठ लिख
रही हो जबकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह तुम्हारे लगातार पास होते जाने की
प्रशंसा करती थी। यहाँ पर मैं यह कहूँगी कि वह उसका झूठा बड़प्पन था। यह
दिखलाना कि देखो मैं तुमसे प्यार करती हूँ। अगर वह मुझे प्यार करती तो परीक्षा
के दिनों में मेरे घर टपककर अपनी सिलाई सिखाने वाली मैडम से हुए झगड़े का रोना
नहीं रोती। जब मैंने कहा मुझसे नहीं सँभलता तुम्हारा मामला, तुम्हारा झमेला
मैं कैसे सुलझाऊँ मेरी कल परीक्षा है तो वह जोर से बोली, जब एक सहेली मुसीबत
में होती है तो दूसरी जी-जान लगा उसकी सहायता करती है। कभी तुम मेरे पास आधी
रात को भी आओ, मुझे पुकारो तो मैं घर से निकल पड़ूँगी। मैंने भी खूब झगड़ा किया
कि दोस्ती की यह परिभाषा तुम अपने पास रखो। उस दिन हम दोनों का दिल टूट गया
था। यह टूटा हुआ ही रहता तो अच्छा था, पर न जाने कैसे दो-तीन दिन ग्लानि के
सागर में डूबे रहने के बाद हम किनारे आए, एक दूसरे से माफी माँगी और फिर वही
सिलसिला शुरू हो गया।
यह सिलसिला मुझे फिर दुख देने लगा तब जब मेरी सहेली मुझे वक्त-बेवक्त फोन पर
कहती कि मुझे बातें करो। मैं उससे क्या बात करती, क्या बताती कि मैं दिन-रात
साहित्य-साधना में डूबी रहती हूँ। वह तो किताब के नाम से ऐसे भागती कि किसी ने
उसे साँप सुँघा दिया हो। दो-चार किताब किसी तरह पढ़ लेने से मैं उसे अपनी तरह
साहित्य का प्रेमी और ज्ञाता कैसे मान लूँ, वह तो बात करने लायक भी नहीं है।
कुछ नहीं समझती। अब एक-एक बात को विस्तार से मैं क्यों समझाऊँ! यह तो उसे
समझना चाहिए कि अब मेरा पहले से ज्यादा विकास हो गया है। मुझे उसकी उन
छोटी-छोटी बातों में, जो क्षुद्रताओं से भारी हैं, कोई रुचि नहीं रही। पहले की
बात अलग थी कि मैं उसके हर झगड़े को सुलझाने की कोशिश करती थी जो कभी वह अपनी
मम्मी से, कभी पापा से तो कभी भाई से कर लेती थी। उसे घरवालों के प्रति गुस्सा
न करने का उपदेश देकर मैं आनंद से भर उठती पर क्या मैं जीवन भर 'फसाद सुधारक'
बनी रहूँगी और अब उसका उसके सास-ससुर से झगड़ा दूर करती रहूँगी? उसकी सास उसे
पीहर नहीं जाने देती तो इसमें मैं क्या कर सहक्ती हूँ। उस समय भी मैं क्या कर
सकती हूँ जब उसका पति गुस्से में उसे खींचकर चाँटा मार देता है। मैं तो उसकी
इन बातों से बोर हो जाती हूँ। उसकी इन बातों में मुझे कोई नई बात नजर नही आती।
कब का आशापूर्णा देवी ने संयुक्त परिवार का झगड़ा-रगड़ा लिख दिया था। ऐसा नहीं
है कि मैं अपनी सहेली से बात नहीं करना चाहती पर वह लिख दिया था। ऐसा नहीं है
कि मैं अपनी सहेली से बात नहीं करना चाहती पर वह मेरी बात में कोई नई बात जोड़
नहीं पाती तो क्या मैंने जीवन भर उसका दिल हल्का करने का ठेका लिया है! वह
कहती है कि मेरी सास ने कल गुस्से में आत्महत्या करने की कोशिश की। मैंने तपाक
से कहा, तुम बदहवास क्यों हो रही हो। सीधी सी बात है जो तुम्हें समझ में नहीं
आई कि तुम्हारी सास विक्षिप्त औरत है। मेरी सहेली 'विक्षिप्त' शब्द सुन मुझे
ताकने लगी। उसे इस शब्द का अर्थ नहीं मालूम। मुझमें और उसमें पढ़ाई-लिखाई और
भाषा की इतनी दूरी है। मैं और निभा नहीं सकती। भले ही उसने मासूम हो कर कहा हो
कि किसी और तरह अपनी बात समझाओ सीधे सरल शब्दों में। पर मुझे वह ईडियट लगी।
अब आप ही कही कि क्या वह मेरी सहेली होने लायक है? मैं एक पढ़ी-लिखी एम.ए. पास,
साहित्य पढ़ने वाली, राजनीति पर बात करनेवाली विकसित लड़की हूँ। वह तो बी.ए. पास
भी नहीं है। वह किसी भी तरह मेरे बराबर नहीं है। मैं अँग्रेजी बोलती हूँ वह
हिंदी ही नहीं समझती तो अँग्रेजी तो क्या खाक उसके पल्ले पड़ेगी। अब ऐसी लड़की
को क्या मैं अपनी सहेली कहूँ? उसे यह पता नहीं है कि मेरी सहेलियाँ वे हैं जो
मुझसे हर विषय पर बात करती हैं। हम लोग हर समय सास और पति की बात नहीं करते और
न ही कल खाने में क्या बनाया था आज क्या बनाने वाली हो कि पूछताछ। हम बात करते
हैं कि साहित्य में आजकल क्या लिखा जा रहा है, कला फिल्मों के दर्शक कौन हैं?
मैं तो घिसी-पिटी फिल्मों, घिसे-पिटे लेखन में अंतर करना जानती हूँ पर उसे तो
यह सब कुछ भी नहीं मालूम! मैं शब्दों को लेकर कितनी सचेत हूँ! मेरी भाषा सुन
मेरी एम.ए, सहेलियाँ मुग्ध हो जाती हैं। पर उसे कुछ समझ में नहीं आता। उसे तो
बोलना भी नहीं आता। पिटे-पिटाए शब्दों में अपनी बात रटे-रटाए ढंग से कहती है।
कितनी सीमित है उसकी भाषा। अब आप बताइए कि इसमें मेरा दोष है कि मेरा उससे बात
करने का मन नहीं करता! उसके हिज्जों की गलतियाँ मेरे आँखों के सामने नाचने
लगती हैं और मैं यह प्रतिज्ञा करती हूँ कि उसे साफ-साफ कह दूँगी कि तुम मुझसे
बात मत किया करो। पर लाख बार ऐसा सोचने पर भी मुझसे ऐसा होता नहीं है। मैं उसे
आज तक एक बार भी यह कह नही पाई कि तुम मुझे तंग करती हो। सब कुछ के बाद भी
मैंने अभी उससे फोन पर एक घंटा बात की है और आप जानते हैं उसने मुझे गाजर का
हलवा कैसे बनता है कि विधि रटा दी है। वह चाहती है कि मैं उससे इस बात पर
चर्चा करूँ कि बाल में रूसी-खोरा बढ़ जाने पर क्या नींबू का रस रूई में भिगोकर
जड़ों में लगाकर छोड़ देना चाहिए? वह तेलों के बारे में भी मुझसे बात करना चाहती
है कि आजकल के किसी भी तेल में दम नहीं जो कम उम्र में बालों को सफेद होने से
बचा सके। अब आप ही बताइए कि मैं क्या करूँ?